प्रयागराज

चातुर्मास में इष्ट वस्तु के परित्याग तथा नियम-पालन का महत्त्व।

चातुर्मास में इष्ट वस्तु के परित्याग तथा नियम-पालन का महत्त्व।

 

ब्रह्माजी कहते हैं👉 मनुष्य सदा प्रिय वस्तु की इच्छा करता है। अत: जो चातुर्मास्य में भगवान् नारायण की प्रीति के लिये अपने प्रिय भोगों का पूर्ण प्रयत्न पूर्वक त्याग करता है, उसकी त्यागी हुई वे वस्तुएँ उसे अक्षयरूप में प्राप्त होती हैं। जो मनुष्य श्रद्धा पूर्वक प्रिय वस्तु का त्याग करता है, वह अनन्त फल का भागी होता है। धातु पात्रों का त्याग करके पलाश के पत्ते में भोजन करने वाला मनुष्य ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है। गृहस्थ मनुष्य ताँबे के पात्र में कदापि भोजन न करे चौमासे में तो ताँबे के पात्र में भोजन विशेष रूप से त्याज्य है। मदार के पत्ते में भोजन करने वाला मनुष्य अनुपम फल को पाता है। चातुर्मास्य में विशेषत: वट के पत्र में भोजन करना चाहिये चातुर्मास्य में भगवान् विष्णु को प्रीति के लिये गृहस्थ-आश्रम का परित्याग करके बाह्य आश्रम का सेवन करने वाले मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता। मिर्च छोड़ने से राजा होता है, रेशमी वस्त्रों के त्याग से अक्षय सुख मिलता है, उड़द और चना छोड़ देने से पुनर्जन्म की प्राप्ति नहीं होती। चातुर्मास्य में विशेषतः काले रंग का वस्त्र त्याग देना चाहिये। नीले वस्त्र को देख लेने से जो दोष लगता है, उसकी शुद्धि भगवान् सूर्यनारायण के दर्शन से होती है। कुसुम्भ रंग के परित्याग करने से मनुष्य यमराज को नहीं देखता। केशर के त्याग से वह राजा का प्रिय होता है। फूलों को छोड़ने से मनुष्य ज्ञानी होता है, शय्या का परित्याग करने से महान् सुख की प्राप्ति होती है। असत्यभाषण के त्याग से मोक्ष का दरवाजा खुल जाता है। चातुर्मास्य में परनिन्दा का विशेषप रूप से परित्याग करे। पर-निन्दा महान् पाप है, पर निन्दा महान् भय है, पर निन्दा महान् दु:ख है और परनिन्दा से बढ़कर दूसरा कोई पातक नहीं है। परनिन्दा को सुनने वाला भी पापी होता है। चौमासे में केशों का सँवारना (हजामत) त्याग दे तो वह तीनों तापों से रहित होता है। जो भगवान् के शयन करने पर विशेषत: नख और रोम धारण किये रहता है, उसे प्रतिदिन गंगा स्नान का फल मिलता है। मनुष्य को सब उपायों द्वारा योगियों के ध्येय भगवान् विष्णु को ही प्रसन्न करना चाहिये। समस्त वर्णों एवं श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा भी भगवान् श्रीहरि का ही चिन्तन करना चाहिये। भगवान् विष्णु के नाम से मनुष्य घोर बन्धन से मुक्त हो जाता है। चातुर्मास्य में उनका विशेष रूप से स्मरण करना उचित है।

कर्क की संक्रान्ति के दिन भगवान् विष्णु का भक्ति पूर्वक पूजन करके प्रशस्त एवं शुभ जामुन के फलों से अर्घ्य देना चाहिये। अर्घ्य देते समय इस भाव का चिन्तन करे- ‘छ: महीने के भीतर जहाँ कहीं भी मेरी मृत्यु हो जाय तो मानो मैंने स्वयं ही अपने-आपको भगवान् वासुदेव के चरणों में ही समर्पित कर दिया।’ सर्वथा प्रयत्न करके भगवान् जनार्दन का सेवन करना चाहिये। जो मनुष्य भगवान् विष्णु की कथा, पूजा, ध्यान और नमस्कार सब कुछ उन्हीं श्रीहरि की प्रसन्नता के लिये करता है, वह मोक्ष का भागी होता है। सत्य स्वरूप सनातन विष्णु वर्णाश्रम-धर्म के स्वरूप हैं। जन्म-मृत्यु आदि के कष्ट का उन्हीं के द्वारा नाश होता है। अत: चातुर्मास्य में विशेष रूप से व्रत द्वारा श्रीहरि को ही ग्रहण करना चाहिये। तपोनिधि भगवान् नारायण के शयन करने पर अपने इस शरीर को तपस्या द्वारा शुद्ध करना चाहिये। भगवान् विष्णु की भक्ति से युक्त जो व्रत है, उसे विष्णुव्रत जानो। धर्म में संलग्न होना तप है। व्रतों में सबसे उत्तम व्रत है – ब्रह्मचर्य का पालन। ब्रह्मचर्य तपस्या का सार है और ब्रह्मचर्य महान् फल देने वाला है। इसलिये समस्त कर्मों में ब्रह्मचर्य को बढ़ावे। ब्रह्मचर्य के प्रभाव से उग्र तपस्या होती है। ब्रह्मचर्य से बढ़कर धर्म का उत्तम साधन दूसरा नहीं है। विशेषत: चातुर्मास्य में भगवान् विष्णु के शयन करने पर यह महान् व्रत संसार में अधिक गुणकारक है- ऐसा जानो। जो इस वैष्णवधर्म का पालन करता है, वह कभी कर्मो से लिप्त नहीं होता। भगवान् के शयन करने पर जो यह प्रतिज्ञा करके कि- ‘हे भगवन्! मैं आपकी प्रसन्नता के लिये अमुक सत्कर्म करूँगा। उसका पालन करता है, तो उसी को व्रत कहते हैं। वह व्रत अधिक गुणों वाला होता है। अग्निहोत्र, ब्राह्मण भक्ति, धर्मविषयक श्रद्धा, उत्तम बुद्धि, सत्संग, विष्णुपूजा, सत्य भाषण, हृदय में दया, सरलता एवं कोमलता, मधुर वाणी, उत्तम चरित्र में अनुराग वेदपाठ, चोरी का त्याग, अहिंसा, लज्जा, क्षमा, मन और इन्द्रियों का संयम, लोभ, क्रोध और मोह का अभाव, इन्द्रिय संयम में प्रेम, वैदिक कर्मों का उत्तम ज्ञान तथा श्रीकृष्ण को अपने चित्त का समर्पण- ये नियम जिस पुरुष में स्थिर हैं, वह जीवन्मुक्त कहा गया है। वह पातकों से कभी लिप्त नहीं होता। एक बार का किया हुआ व्रत भी सदैव महान् फल देने वाला होता है। चातुर्मास्य में ब्रह्मचर्य आदि का सेवन अधिक फलद होता है। चातुर्मास्य व्रत का अनुष्ठान सभी वर्ण के लोगों के लिये महान् फलदायक है। व्रत के सेवन में लगे हुए मनुष्यो द्वारा सर्वत्र भगवान् विष्णु का दर्शन होता है। चातुर्मास्य आने पर व्रत का यत्न पूर्वक पालन करे। विष्णु, ब्राह्मण और अग्निस्वरूप तीर्थ का सेवन करे। चारों वेदमय स्वरूप वाले अजन्मा विराट् पुरुष को भजे, जिनके प्रसाद से मनुष्य मोक्षरूपी महान् वृक्ष के ऊपर चढ़ जाता है और कभी सन्ताप को नहीं प्राप्त होता।

संदर्भ:👉 श्रीस्कन्द महापुराण
〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️